हरीम-ए-काबा बना दी वो सर-ज़मीं मैं ने
तिरे ख़याल में रख दी जहाँ जबीं मैं ने
मुझी को पर्दा-ए-हस्ती में दे रहा है फ़रेब
वो हुस्न जिस को किया जल्वा-आफ़रीं मैं ने
चटक में ग़ुंचे की वो सौत-ए-जाँ-फ़ज़ा तो नहीं
सुनी है पहले भी आवाज़ ये कहीं मैं ने
रहीन-ए-मंज़िल-ए-वहम-ओ-गुमाँ रहा 'अख़्तर'
इसी में ढूँढ लिया जादा-ए-यक़ीं मैं ने
ग़ज़ल
हरीम-ए-काबा बना दी वो सर-ज़मीं मैं ने
अख़्तर अली अख़्तर