हर-दम बदन की क़ैद का रोना फ़ुज़ूल है
मौसम सदाएँ दे तो बिखर जाना चाहिए
अखिलेश तिवारी
जिसे परछाईं समझे थे हक़ीक़त में न पैकर हो
परखना चाहिए था आप को उस शय को छू कर भी
अखिलेश तिवारी
ख़याल आया हमें भी ख़ुदा की रहमत का
सुनाई जब भी पड़ी है अज़ान पिंजरे में
अखिलेश तिवारी
कोई तो बात है पिछले पहर में रातों के
ये बंद कमरा अजब रौशनी से भर जाए
अखिलेश तिवारी
फिसलन ये किनारों प ये ठहराव नदी का
सब साफ़ इशारे हैं कि गहराई बहुत है
अखिलेश तिवारी
क़दम बढ़ा तो लूँ आबादियों की सम्त मगर
मुझे वो ढूँढता तन्हाइयों में आया तो
अखिलेश तिवारी
सुब्ह-सवेरा दफ़्तर बीवी बच्चे महफ़िल नींदें रात
यार किसी को मुश्किल भी होती है इस आसानी पर
अखिलेश तिवारी