ज़िंदगी हम से तिरे नाज़ उठाए न गए
साँस लेने की फ़क़त रस्म अदा करते थे
शाज़ तमकनत
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आँखें कहीं दिमाग़ कहीं दस्त ओ पा कहीं
रस्तों की भीड़-भाड़ में दुनिया बिखर गई
शीन काफ़ निज़ाम
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आरज़ू थी एक दिन तुझ से मिलूँ
मिल गया तो सोचता हूँ क्या करूँ
शीन काफ़ निज़ाम
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आरज़ू थी एक दिन तुझ से मिलूँ
मिल गया तो सोचता हूँ क्या करूँ
शीन काफ़ निज़ाम
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अपने अफ़्साने की शोहरत उसे मंज़ूर न थी
उस ने किरदार बदल कर मिरा क़िस्सा लिख्खा
शीन काफ़ निज़ाम
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अपनी पहचान भीड़ में खो कर
ख़ुद को कमरों में ढूँडते हैं लोग
शीन काफ़ निज़ाम
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अपनी पहचान भीड़ में खो कर
ख़ुद को कमरों में ढूँडते हैं लोग
शीन काफ़ निज़ाम
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