शब ओ रोज़ जैसे ठहर गए कोई नाज़ है न नियाज़ है
तिरे हिज्र में ये पता चला मिरी उम्र कितनी दराज़ है
शाज़ तमकनत
शब ओ रोज़ जैसे ठहर गए कोई नाज़ है न नियाज़ है
तिरे हिज्र में ये पता चला मिरी उम्र कितनी दराज़ है
शाज़ तमकनत
सुख़न राज़-ए-नशात-ओ-ग़म का पर्दा हो ही जाता है
ग़ज़ल कह लें तो जी का बोझ हल्का हो ही जाता है
शाज़ तमकनत
उन से मिलते थे तो सब कहते थे क्यूँ मिलते हो
अब यही लोग न मिलने का सबब पूछते हैं
शाज़ तमकनत
उन से मिलते थे तो सब कहते थे क्यूँ मिलते हो
अब यही लोग न मिलने का सबब पूछते हैं
शाज़ तमकनत
उस का होना भी भरी बज़्म में है वज्ह-ए-सुकूँ
कुछ न बोले भी तो वो मेरा तरफ़-दार लगे
शाज़ तमकनत
ज़िंदगी हम से तिरे नाज़ उठाए न गए
साँस लेने की फ़क़त रस्म अदा करते थे
शाज़ तमकनत