कुछ अजब आन से लोगों में रहा करते थे
हम ख़फ़ा हो के भी आपस में मिला करते थे
इतनी तहज़ीब-ए-रह-ओ-रस्म तो बाक़ी थी कि वो
लाख रंजिश सही वादा तो वफ़ा करते थे
उस ने पूछा था कई बार मगर क्या कहते
हम मिज़ाजन ही परेशान रहा करते थे
ख़त्म था हम पे मोहब्बत का तमाशा गोया
रूह और जिस्म को हर रोज़ जुदा करते थे
एक चुप-चाप लगन सी थी तिरे बारे में
लोग आ आ के सुनाते थे सुना करते थे
तेरी सूरत से ख़ुदा से भी शनासाई थी
कैसे कैसे तिरे मिलने की दुआ करते थे
उस को हम-राह लिए आते थे मेरी ख़ातिर
मेरे ग़म-ख़्वार मिरे हक़ में बुरा करते थे
ज़िंदगी हम से तिरे नाज़ उठाए न गए
साँस लेने की फ़क़त रस्म अदा करते थे
हम बरस पड़ते थे 'शाज़' अपनी ही तन्हाई पर
अब्र की तरह किसी दर से उठा करते थे
ग़ज़ल
कुछ अजब आन से लोगों में रहा करते थे
शाज़ तमकनत