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आरज़ू थी एक दिन तुझ से मिलूँ | शाही शायरी
aarzu thi ek din tujhse milun

ग़ज़ल

आरज़ू थी एक दिन तुझ से मिलूँ

शीन काफ़ निज़ाम

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आरज़ू थी एक दिन तुझ से मिलूँ
मिल गया तो सोचता हूँ क्या करूँ

जिस्म तू भी और मैं भी जिस्म हूँ
किस तरह फिर तेरा पैराहन बनूँ

रास्ता कोई कहीं मिलता नहीं
जिस्म में जन्मों से अपने क़ैद हूँ

थी घुटन पहले भी पर ऐसी न थी
जी में आता है कि खिड़की खोल दूँ

ख़ुद-कुशी के सैंकड़ों अंदाज़ हैं
आरज़ू ही का न दामन थाम लूँ

साअतें सनअत-गरी करने लगीं
हर तरफ़ है याद का गहरा फ़ुसूँ