फ़ासला रख के भी क्या हासिल हुआ
आज भी उस का ही कहलाता हूँ मैं
शारिक़ कैफ़ी
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फ़ैसले औरों के करता हूँ
अपनी सज़ा कटती रहती है
शारिक़ कैफ़ी
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गुफ़्तुगू कर के परेशाँ हूँ कि लहजे में तिरे
वो खुला-पन है कि दीवार हुआ जाता है
शारिक़ कैफ़ी
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गुफ़्तुगू कर के परेशाँ हूँ कि लहजे में तिरे
वो खुला-पन है कि दीवार हुआ जाता है
शारिक़ कैफ़ी
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हैं अब इस फ़िक्र में डूबे हुए हम
उसे कैसे लगे रोते हुए हम
शारिक़ कैफ़ी
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हो सबब कुछ भी मिरे आँख बचाने का मगर
साफ़ कर दूँ कि नज़र कम नहीं आता है मुझे
शारिक़ कैफ़ी
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जैसे ये मेज़ मिट्टी का हाथी ये फूल
एक कोने में हम भी हैं रक्खे हुए
शारिक़ कैफ़ी
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