सफ़र का नश्शा चढ़ा है तो क्यूँ उतर जाए
मज़ा तो जब है कोई लौट के न घर जाए
शहरयार
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शाम होते ही खुली सड़कों की याद आती है
सोचता रोज़ हूँ मैं घर से नहीं निकलूँगा
शहरयार
शदीद प्यास थी फिर भी छुआ न पानी को
मैं देखता रहा दरिया तिरी रवानी को
शहरयार
शदीद प्यास थी फिर भी छुआ न पानी को
मैं देखता रहा दरिया तिरी रवानी को
शहरयार
शहर-ए-उम्मीद हक़ीक़त में नहीं बन सकता
तो चलो उस को तसव्वुर ही में तामीर करें
शहरयार
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शिकवा कोई दरिया की रवानी से नहीं है
रिश्ता ही मिरी प्यास का पानी से नहीं है
शहरयार
सीने में जलन आँखों में तूफ़ान सा क्यूँ है
इस शहर में हर शख़्स परेशान सा क्यूँ है
शहरयार
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