अपना घर शहर-ए-ख़मोशाँ सा है
कौन आएगा यहाँ शाम ढले
अफ़ज़ल परवेज़
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अपना घर शहर-ए-ख़मोशाँ सा है
कौन आएगा यहाँ शाम ढले
अफ़ज़ल परवेज़
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बाज़ीगाह-ए-दार-ओ-रसन में मय-कदा-ए-फ़िक्र-ओ-फ़न में
हम रिंदों से रौनक़ है हम दरवेशों से मेले हैं
अफ़ज़ल परवेज़
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दर-ओ-दीवार भी होते हैं जासूस
कोई सुनता न हो आहिस्ता बोलो
अफ़ज़ल परवेज़
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हर मुसाफ़िर तिरे कूचे को चला
उस तरफ़ छाँव घनी हो जैसे
अफ़ज़ल परवेज़
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हुस्न की दौलत उस की है और वस्ल की इशरत भी उस की
जिस ने पल पल हिज्र में काटा जौर सहे दुख झेले हैं
अफ़ज़ल परवेज़
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कारज़ार-ए-इश्क़-ओ-सर-मस्ती में नुसरत-याब हों
वो जुनूनी दार तक जाने को जो बेताब हूँ
अफ़ज़ल परवेज़
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