हुस्न हीरे की कनी हो जैसे
और मिरी जाँ पे बनी हो जैसे
तेरी चितवन के अजब तेवर हैं
सर पे तलवार तनी हो जैसे
रेज़ा रेज़ा हुए मीना-ओ-अयाग़
रिंद-ओ-साक़ी में ठनी हो जैसे
अपनी गलियों में हैं यूँ आवारा
कि ग़रीब-उल-वतनी हो जैसे
हर मुसाफ़िर तिरे कूचे को चला
उस तरफ़ छाँव घनी हो जैसे
तेरी क़ुर्बत की ख़ुमार-आगीनी
रुत शराबों में सनी हो जैसे
ये कशाकश की मय-ए-मर्द-अफ़्गन
तेरी पलकों से छनी हो जैसे
ग़ज़ल
हुस्न हीरे की कनी हो जैसे
अफ़ज़ल परवेज़