मुझे पसंद नहीं ऐसे कारोबार में हूँ
ये जब्र है कि मैं ख़ुद अपने इख़्तियार में हूँ
आदिल मंसूरी
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नश्शा सा डोलता है तिरे अंग अंग पर
जैसे अभी भिगो के निकाला हो जाम से
आदिल मंसूरी
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नींद भी जागती रही पूरे हुए न ख़्वाब भी
सुब्ह हुई ज़मीन पर रात ढली मज़ार में
आदिल मंसूरी
फिर बालों में रात हुई
फिर हाथों में चाँद खिला
आदिल मंसूरी
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फिर कोई वुसअत-ए-आफ़ाक़ पे साया डाले
फिर किसी आँख के नुक़्ते में उतारा जाऊँ
आदिल मंसूरी
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फूलों की सेज पर ज़रा आराम क्या किया
उस गुल-बदन पे नक़्श उठ आए गुलाब के
आदिल मंसूरी
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| हुस्न |
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तस्वीर में जो क़ैद था वो शख़्स रात को
ख़ुद ही फ़्रेम तोड़ के पहलू में आ गया
आदिल मंसूरी
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