आशिक़ थे शहर में जो पुराने शराब के
हैं उन के दिल में वसवसे अब एहतिसाब के
वो जो तुम्हारे हाथ से आ कर निकल गया
हम भी क़तील हैं उसी ख़ाना-ख़राब के
फूलों की सेज पर ज़रा आराम क्या किया
उस गुल-बदन पे नक़्श उठ आए गुलाब के
सोए तो दिल में एक जहाँ जागने लगा
जागे तो अपनी आँख में जाले थे ख़्वाब के
बस तिश्नगी की आँख से देखा करो उन्हें
दरिया रवाँ-दवाँ हैं चमकते सराब के
ओकाड़ा इतनी दूर न होता तो एक दिन
भर लाते साँस साँस में गुल आफ़्ताब के
किस तरह जम्अ' कीजिए अब अपने आप को
काग़ज़ बिखर रहे हैं पुरानी किताब के
ग़ज़ल
आशिक़ थे शहर में जो पुराने शराब के
आदिल मंसूरी