घूम रहा था एक शख़्स रात के ख़ारज़ार में
उस का लहू भी मर गया सुब्ह के इंतिज़ार में
रूह की ख़ुश्क पत्तियाँ शाख़ से टूटती रहीं
और घटा बरस गई जिस्म के रेगज़ार में
रंग में रंग घुल गए अक्स के शीशे धुल गए
क़ौस-ए-क़ुज़ह पिघल गई भीगी हुई लगार में
ठंडी सड़क थी बे-ख़बर गर्म दिनों के क़हर से
धूप को झेलते रहे पेड़ खड़े क़तार में
बहती हवा की मौज में तैर रहे थे सब्ज़ घर
शहर अजीब सा लगा रात चढ़े ख़ुमार में
नींद भी जागती रही पूरे हुए न ख़्वाब भी
सुब्ह हुई ज़मीन पर रात ढली मज़ार में
देता जवाब क्या कोई मेरे सिवा न था कोई
डूब के रह गई सदा तंग सियाह ग़ार में
ग़ज़ल
घूम रहा था एक शख़्स रात के ख़ारज़ार में
आदिल मंसूरी