खिड़की ने आँखें खोली
दरवाज़े का दिल धड़का
आदिल मंसूरी
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ख़ुद-ब-ख़ुद शाख़ लचक जाएगी
फल से भरपूर तो हो लेने दो
आदिल मंसूरी
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ख़्वाहिश सुखाने रक्खी थी कोठे पे दोपहर
अब शाम हो चली मियाँ देखो किधर गई
आदिल मंसूरी
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किस तरह जमा कीजिए अब अपने आप को
काग़ज़ बिखर रहे हैं पुरानी किताब के
आदिल मंसूरी
कोई ख़ुद-कुशी की तरफ़ चल दिया
उदासी की मेहनत ठिकाने लगी
आदिल मंसूरी
क्यूँ चलते चलते रुक गए वीरान रास्तो
तन्हा हूँ आज मैं ज़रा घर तक तो साथ दो
आदिल मंसूरी
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मेरे टूटे हौसले के पर निकलते देख कर
उस ने दीवारों को अपनी और ऊँचा कर दिया
आदिल मंसूरी
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