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2 लाइन शायरी शायरी | शाही शायरी

2 लाइन शायरी

22761 शेर

'सहर' अब होगा मेरा ज़िक्र भी रौशन-दिमाग़ों में
मोहब्बत नाम की इक रस्म-ए-बेजा छोड़ दी मैं ने

अबु मोहम्मद सहर




तकमील-ए-आरज़ू से भी होता है ग़म कभी
ऐसी दुआ न माँग जिसे बद-दुआ कहें

अबु मोहम्मद सहर




मेहनत से मिल गया जो सफ़ीने के बीच था
दरिया-ए-इत्र मेरे पसीने के बीच था

अबु तुराब




बे-नियाज़-ए-दहर कर देता है इश्क़
बे-ज़रों को लाल-ओ-ज़र देता है इश्क़

अबुल हसनात हक़्क़ी




जाने क्या सूरत-ए-हालात रक़म थी उस में
जो वरक़ चाक हुआ उस को दोबारा देखें

अबुल हसनात हक़्क़ी




मैं क़त्ल हो के भी शर्मिंदा अपने-आप से हूँ
कि इस के बाद तो सारा ज़वाल है उस का

अबुल हसनात हक़्क़ी




मेरी वहशत भी सकूँ-ना-आश्ना मेरी तरह
मेरे क़दमों से बंधी है ज़िम्मेदारी और क्या

अबुल हसनात हक़्क़ी