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बे-नियाज़-ए-दहर कर देता है इश्क़ | शाही शायरी
be-niyaz-e-dahr kar deta hai ishq

ग़ज़ल

बे-नियाज़-ए-दहर कर देता है इश्क़

अबुल हसनात हक़्क़ी

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बे-नियाज़-ए-दहर कर देता है इश्क़
बे-ज़रों को लाल-ओ-ज़र देता है इश्क़

कम-निहाद ओ बे-सबात इंसान में
जाने क्या क्या जम्अ कर देता है इश्क़

कौन जाने इस की उल्टी मंतिक़ें
टूटे हाथों में सिपर देता है इश्क़

पहले कर देता है सब आलम सियाह
और फिर अपनी ख़बर देता है इश्क़

जान देना खेलते हँसते हुए
क़त्ल होने का हुनर देता है इश्क़

कट गिरीं और फिर भी क़ाएम हैं सफ़ें
कितने बाज़ू कितने सर देता है इश्क़

सर-बरहना हैं अना-गुम्बद जो थे
आँधियों से सर को भर देता है इश्क़

दर्द-मंदी पर जो क़ाएम हैं उन्हें
नूर-अफ्ज़ा चश्म-ए-तर देता है इश्क़

एक बोझल रात कट जाने के बाद
एक लम्हे को सहर देता है इश्क़

ये समझ तुम को भी होगी साहिबो
दिल को क्यूँ शोलों पे धर देता है इश्क़

चल निकलने का इरादा बाँधिए
देखिए सम्त-ए-सफ़र देता है इश्क़

धूम है जिस की ख़याम-ए-हूर में
आबरू का वो गुहर देता है इश्क़