हिन्दू से पूछिए न मुसलमाँ से पूछिए
इंसानियत का ग़म किसी इंसाँ से पूछिए
अबु मोहम्मद सहर
होश-मंदी से जहाँ बात न बनती हो 'सहर'
काम ऐसे में बहुत बे-ख़बरी आती है
अबु मोहम्मद सहर
इश्क़ के मज़मूँ थे जिन में वो रिसाले क्या हुए
ऐ किताब-ए-ज़िंदगी तेरे हवाले क्या हुए
अबु मोहम्मद सहर
इश्क़ को हुस्न के अतवार से क्या निस्बत है
वो हमें भूल गए हम तो उन्हें याद करें
अबु मोहम्मद सहर
मर्ज़ी ख़ुदा की क्या है कोई जानता नहीं
क्या चाहती है ख़ल्क़-ए-ख़ुदा हम से पूछिए
अबु मोहम्मद सहर
फिर खुले इब्तिदा-ए-इश्क़ के बाब
उस ने फिर मुस्कुरा के देख लिया
अबु मोहम्मद सहर
रह-ए-इश्क़-ओ-वफ़ा भी कूचा-ओ-बाज़ार हो जैसे
कभी जो हो नहीं पाता वो सौदा याद आता है
अबु मोहम्मद सहर