EN اردو
वहशत रज़ा अली कलकत्वी शायरी | शाही शायरी

वहशत रज़ा अली कलकत्वी शेर

54 शेर

'वहशत' सुख़न ओ लुत्फ़-ए-सुख़न और ही शय है
दीवान में यारों के तो अशआर बहुत हैं

वहशत रज़ा अली कलकत्वी




'वहशत' उस बुत ने तग़ाफ़ुल जब किया अपना शिआर
काम ख़ामोशी से मैं ने भी लिया फ़रियाद का

वहशत रज़ा अली कलकत्वी




वो काम मेरा नहीं जिस का नेक हो अंजाम
वो राह मेरी नहीं जो गई हो मंज़िल को

वहशत रज़ा अली कलकत्वी




यहाँ हर आने वाला बन के इबरत का निशाँ आया
गया ज़ेर-ए-ज़मीं जो कोई ज़ेर-ए-आसमाँ आया

वहशत रज़ा अली कलकत्वी




ज़ालिम की तो आदत है सताता ही रहेगा
अपनी भी तबीअत है बहलती ही रहेगी

वहशत रज़ा अली कलकत्वी




ज़बरदस्ती ग़ज़ल कहने पे तुम आमादा हो 'वहशत'
तबीअत जब न हो हाज़िर तो फिर मज़मून क्या निकले

वहशत रज़ा अली कलकत्वी




ज़माना भी मुझ से ना-मुवाफ़िक़ मैं आप भी दुश्मन-ए-सलामत
तअज्जुब इस का है बोझ क्यूँकर मैं ज़िंदगी का उठा रहा हूँ

वहशत रज़ा अली कलकत्वी




ज़मीं रोई हमारे हाल पर और आसमाँ रोया
हमारी बेकसी को देख कर सारा जहाँ रोया

वहशत रज़ा अली कलकत्वी




ज़िंदगी अपनी किसी तरह बसर करनी है
क्या करूँ आह अगर तेरी तमन्ना न करूँ

वहशत रज़ा अली कलकत्वी