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वहशत रज़ा अली कलकत्वी शायरी | शाही शायरी

वहशत रज़ा अली कलकत्वी शेर

54 शेर

हर चंद 'वहशत' अपनी ग़ज़ल थी गिरी हुई
महफ़िल सुख़न की गूँज उठी वाह वाह से

वहशत रज़ा अली कलकत्वी




इस ज़माने में ख़मोशी से निकलता नहीं काम
नाला पुर-शोर हो और ज़ोरों पे फ़रियाद रहे

वहशत रज़ा अली कलकत्वी




जो गिरफ़्तार तुम्हारा है वही है आज़ाद
जिस को आज़ाद करो तुम कभी आज़ाद न हो

वहशत रज़ा अली कलकत्वी




कठिन है काम तो हिम्मत से काम ले ऐ दिल
बिगाड़ काम न मुश्किल समझ के मुश्किल को

वहशत रज़ा अली कलकत्वी




ख़ाक में किस दिन मिलाती है मुझे
उस से मिलने की तमन्ना देखिए

वहशत रज़ा अली कलकत्वी




ख़याल तक न किया अहल-ए-अंजुमन ने ज़रा
तमाम रात जली शम्अ अंजुमन के लिए

वहशत रज़ा अली कलकत्वी




किस तरह हुस्न-ए-ज़बाँ की हो तरक़्क़ी 'वहशत'
मैं अगर ख़िदमत-ए-उर्दू-ए-मुअ'ल्ला न करूँ

वहशत रज़ा अली कलकत्वी




कुछ समझ कर ही हुआ हूँ मौज-ए-दरिया का हरीफ़
वर्ना मैं भी जानता हूँ आफ़ियत साहिल में है

वहशत रज़ा अली कलकत्वी




मजाल-ए-तर्क-ए-मोहब्बत न एक बार हुई
ख़याल-ए-तर्क-ए-मोहब्बत तो बार बार किया

वहशत रज़ा अली कलकत्वी