तल्ख़ी-कश-ए-नौमीदी-ए-दीदार बहुत हैं
उस नर्गिस-ए-बीमार के बीमार बहुत हैं
आलम पे है छाया हुआ इक यास का आलम
यानी कि तमन्ना के गिरफ़्तार बहुत हैं
इक वस्ल की तदबीर है इक हिज्र में जीना
जो काम कि करने हैं वो दुश्वार बहुत हैं
वो तेरा ख़रीदार-ए-क़दीम आज कहाँ है
ये सच है कि अब तेरे ख़रीदार बहुत हैं
मेहनत हो मुसीबत हो सितम हो तो मज़ा है
मिलना तिरा आसाँ है तलबगार बहुत हैं
उश्शाक़ की परवाह नहीं ख़ुद तुझ को वगरना
जी तुझ पे फ़िदा करने को तय्यार बहुत हैं
'वहशत' सुख़न ओ लुत्फ़-ए-सुख़न और ही शय है
दीवान में यारों के तो अशआर बहुत हैं
ग़ज़ल
तल्ख़ी-कश-ए-नौमीदी-ए-दीदार बहुत हैं
वहशत रज़ा अली कलकत्वी