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खज़ाना-ए-ज़र-ओ-गौहर पे ख़ाक डाल के रख | शाही शायरी
KHazana-e-zar-o-gauhar pe KHak Dal ke rakh

ग़ज़ल

खज़ाना-ए-ज़र-ओ-गौहर पे ख़ाक डाल के रख

इफ़्तिख़ार आरिफ़

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खज़ाना-ए-ज़र-ओ-गौहर पे ख़ाक डाल के रख
हम अहल-ए-मेहर-ओ-मोहब्बत हैं दिल निकाल के रख

हमें तो अपने समुंदर की रेत काफ़ी है
तू अपने चश्मा-ए-बे-फ़ैज़ को सँभाल के रख

ज़रा सी देर का है ये उरूज-ए-माल-ओ-मनाल
अभी से ज़ेहन में सब ज़ाविए ज़वाल के रख

ये बार बार किनारे पे किस को देखता है
भँवर के बीच कोई हौसला उछाल के रख

न जाने कब तुझे जंगल में रात पड़ जाए
ख़ुद अपनी आग से शो'ला कोई उजाल के रख

जवाब आए न आए सवाल उठा तो सही
फिर इस सवाल में पहलू नए सवाल के रख

तिरी बला से गिरोह-ए-जुनूँ पे क्या गुज़री
तू अपना दफ़्तर-ए-सूद-ओ-ज़ियाँ सँभाल के रख

छलक रहा है जो कश्कोल-ए-आरज़ू उस में
किसी फ़क़ीर के क़दमों की ख़ाक डाल के रख