आ गिरा ज़िंदा शमशान में लकड़ियों का धुआँ देख कर
इक मुसाफ़िर परिंदा कई सर्द रातों का मारा हुआ
मंसूर आफ़ाक़
बारिशें उस का लब-ओ-लहजा पहन लेती थीं
शोर करती थी वो बरसात में झाँझर की तरह
मंसूर आफ़ाक़
बस एक लंच ही मुमकिन था जल्दी जल्दी में
उसे भी जाना था मुझ को भी काम करना था
मंसूर आफ़ाक़
बस एक रात से कैसे थकन उतरती है
बदन को चाहिए आराम कुछ ज़ियादा ही
मंसूर आफ़ाक़
एक पत्थर है कि बस सुर्ख़ हुआ जाता है
कोई पहरों से खड़ा है किसी दीवार के पास
मंसूर आफ़ाक़
पत्थर के जिस्म में तुझे इतना किया तलाश
'मंसूर' ढेर लग गए घर में कबाड़ के
मंसूर आफ़ाक़
क़याम करता हूँ अक्सर मैं दिल के कमरे में
कि जम न जाए कहीं गर्द उस की चीज़ों पर
मंसूर आफ़ाक़
सर्द ठिठुरी हुई लिपटी हुई सरसर की तरह
ज़िंदगी मुझ से मिली पिछले दिसम्बर की तरह
मंसूर आफ़ाक़
तिरे भुलाने में मेरा क़ुसूर इतना है
कि पड़ गए थे मुझे काम कुछ ज़ियादा ही
मंसूर आफ़ाक़