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उसे भी रब्त-ए-रिहाइश तमाम करना था | शाही शायरी
use bhi rabt-e-rihaish tamam karna tha

ग़ज़ल

उसे भी रब्त-ए-रिहाइश तमाम करना था

मंसूर आफ़ाक़

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उसे भी रब्त-ए-रिहाइश तमाम करना था
मुझे भी अपना कोई इंतिज़ाम करना था

निगार-ख़ाने से उस ने भी रंग लेने थे
मुझे भी शाम का कुछ एहतिमाम करना था

मुझे भी कहनी थी इक नज़्म उस के लहजे पर
उसे भी इश्क़ में कुछ अपना नाम करना था

बस एक लंच ही मुमकिन था जल्दी जल्दी में
उसे भी जाना था मुझ को भी काम करना था

चराग़ जलते थे जिस के इक एक आसन में
उस एक रात का क्या इख़्तिताम करना था

कोई किताब गिरानी थी कोई संदेसा
किसी तरह तो उसे हम-कलाम करना था

बस एक रात भी गुज़री नहीं वहाँ 'मंसूर'
तमाम उम्र जहाँ पर क़याम करना था