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अभी है ध्यान कहाँ वस्ल के फ़रीज़ों पर | शाही शायरी
abhi hai dhyan kahan wasl ke farizon par

ग़ज़ल

अभी है ध्यान कहाँ वस्ल के फ़रीज़ों पर

मंसूर आफ़ाक़

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अभी है ध्यान कहाँ वस्ल के फ़रीज़ों पर
अभी वो काढ़ती फिरती है दिल क़मीज़ों पर

क़याम करता हूँ अक्सर मैं दिल के कमरे में
कि जम न जाए कहीं गर्द उस की चीज़ों पर

यही तो लोग मसीहा हैं ज़िंदगानी के
हज़ार रहमतें हों इश्क़ के मरीज़ों पर

किसी अनार-कली के ख़याल में अब तक
ग़ुलाम-गर्दिशें मातम-कुनाँ कनीज़ों पर

जला रही है मिरे बादलों के पैराहन
फुवार गिरती हुई मलमलीं क़मीसों पर

ग़ज़ल कही है किसी बे-चराग़ लम्हे में
शब-ए-फ़िराक़ के काजल-ज़दा अज़ीज़ों पर

कि किस दयार में रहना है किस ने कितने दिन
मुसाफ़िरों के ये लिक्खा गया है विज़ों पर

वो ग़ौर करती रही है तमाम दिन 'मंसूर'
मिरे लिबास की उलझी हुई क्रीज़ों पर