जितने मोती गिरे आँख से जितना तेरा ख़सारा हुआ
दस्त-बस्ता तुझे कह रहे हैं वो सारा हमारा हुआ
आ गिरा ज़िंदा शमशान में लकड़ियों का धुआँ देख कर
इक मुसाफ़िर परिंदा कई सर्द रातों का मारा हुआ
हम ने देखा उसे बहते सपने के अर्शे पे कुछ देर तक
फिर अचानक चहकते समुंदर का ख़ाली किनारा हुआ
जा रहा है यूँही बस यूँही मंज़िलें पुश्त पर बाँध कर
इक सफ़र-ज़ाद अपने ही नक़्श-ए-क़दम पर उतारा हुआ
ज़िंदगी इक जुआ-ख़ाना है जिस की फ़ुट-पाथ पर अपना दिल
इक पुराना जुआरी मुसलसल कई दिन का हारा हुआ
तुम जिसे चाँद का चाँद कहते हो 'मंसूर-आफ़ाक़' वो
एक लम्हा है कितने मुसीबत-ज़दों का पुकारा हुआ
ग़ज़ल
जितने मोती गिरे आँख से जितना तेरा ख़सारा हुआ
मंसूर आफ़ाक़