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सर्द ठिठुरी हुई लिपटी हुई सरसर की तरह | शाही शायरी
sard ThiThuri hui lipTi hui sarsar ki tarah

ग़ज़ल

सर्द ठिठुरी हुई लिपटी हुई सरसर की तरह

मंसूर आफ़ाक़

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सर्द ठिठुरी हुई लिपटी हुई सरसर की तरह
ज़िंदगी मुझ से मिली पिछले दिसम्बर की तरह

किस तरह देखना मुमकिन था किसी और तरफ़
मैं ने देखा है तुझे आख़िरी मंज़र की तरह

हाथ रख लम्स भरी तेज़ नज़र के आगे
चीरती जाती है सीना मिरा ख़ंजर की तरह

बारिशें उस का लब-ओ-लहजा पहन लेती थीं
शोर करती थी वो बरसात में झाँझर की तरह

कच्ची मिट्टी की महक ओढ़ के इतराती थी
मैं उसे देखता रहता था समुंदर की तरह

पल्लू गिरता हुआ साड़ी का उठा कर 'मंसूर'
चलती है छलकी हुई दूध की गागर की तरह