पत्थर के रतजगे मिरी पलकों में गाड़ के
रख दीं तिरे फ़िराक़ ने आँखें उजाड़ के
इतनी तवील अपनी मसाफ़त नहीं मगर
मुश्किल-मिज़ाज होते हैं रस्ते पहाड़ के
आँखों से ख़द्द-ओ-ख़ाल निकाले न जा सके
हर-चंद फेंक दी तिरी तस्वीर फाड़ के
ये भोलपन नहीं है कि सूरज के आस-पास
रक्खे गए हैं दाएरे काँटों की बाड़ के
मिट्टी में मिल गई है तमन्ना मिलाप की
कुछ और गिर पड़े हैं किनारे दराड़ के
बे-मेहर मौसमों को नहीं जानता अभी
ख़ुश है जो साएबाँ से तअल्लुक़ बिगाड़ के
पत्थर के जिस्म में तुझे इतना किया तलाश
'मंसूर' ढेर लग गए घर में कबाड़ के
ग़ज़ल
पत्थर के रतजगे मिरी पलकों में गाड़ के
मंसूर आफ़ाक़