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पत्थर के रतजगे मिरी पलकों में गाड़ के | शाही शायरी
patthar ke ratjage meri palkon mein gaD ke

ग़ज़ल

पत्थर के रतजगे मिरी पलकों में गाड़ के

मंसूर आफ़ाक़

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पत्थर के रतजगे मिरी पलकों में गाड़ के
रख दीं तिरे फ़िराक़ ने आँखें उजाड़ के

इतनी तवील अपनी मसाफ़त नहीं मगर
मुश्किल-मिज़ाज होते हैं रस्ते पहाड़ के

आँखों से ख़द्द-ओ-ख़ाल निकाले न जा सके
हर-चंद फेंक दी तिरी तस्वीर फाड़ के

ये भोलपन नहीं है कि सूरज के आस-पास
रक्खे गए हैं दाएरे काँटों की बाड़ के

मिट्टी में मिल गई है तमन्ना मिलाप की
कुछ और गिर पड़े हैं किनारे दराड़ के

बे-मेहर मौसमों को नहीं जानता अभी
ख़ुश है जो साएबाँ से तअल्लुक़ बिगाड़ के

पत्थर के जिस्म में तुझे इतना किया तलाश
'मंसूर' ढेर लग गए घर में कबाड़ के