चाँद को तुम आवाज़ तो दे लो
एक मुसाफ़िर तन्हा तो है
अज़ीम कुरेशी
हम भी किसी शीरीं के लिए ख़ाना-बदर थे
फ़रहाद रह-ए-इश्क़ में तन्हा तो न निकला
अज़ीम कुरेशी
हिज्र में उस निगार-ए-ताबाँ के
लम्हा लम्हा बरस है क्या कीजे
अज़ीम कुरेशी
हुस्न और इश्क़ हैं दोनों काफ़िर
दोनों में इक झगड़ा सा है
अज़ीम कुरेशी
जम भी वही दारा भी सिकंदर भी वही है
जी कर भी तिरा और जो मर कर भी तिरा है
अज़ीम कुरेशी
कहने वाले कहता जा तू
सुनने वाला सुनता तो है
अज़ीम कुरेशी
सहरा का कोई फूल मोअ'त्तर तो नहीं था
था एक छलावा कोई मंज़र तो नहीं था
अज़ीम कुरेशी
तिरे विसाल की कब आरज़ू रही दिल को
कि हम ने चाहा तुझे शौक़-ए-बे-सबब के लिए
अज़ीम कुरेशी