सहरा का कोई फूल मोअ'त्तर तो नहीं था
था एक छलावा कोई मंज़र तो नहीं था
फिर क्यूँ तिरी तस्वीर ढली रूह में मेरी
अफ़्सूँ तिरी आँखों का मुसव्वर तो नहीं था
बन कर मिरा अपना वो बना हसरत-ए-जावेद
था ख़ाक का पुतला ही मुक़द्दर तो नहीं था
मैं भी तिरी ख़ल्वत का कोई नाज़ चुराता
ऐसा कोई क़िस्मत का सिकंदर तो नहीं था
अफ़्साना तिरी ज़ुल्फ़ का ऐ जान-ए-तमन्ना
मैं कैसे सुनाता मुझे अज़बर तो नहीं था
तल्ख़ाबा-ए-दिल था कि हवादिस का शरर था
फ़रियाद न करता कोई पत्थर तो नहीं था
ख़ुद आग में अपनी ही मैं जलता रहा अक्सर
बरगश्ता मैं तुझ से मिरे दावर तो नहीं था
हम ने भी 'अज़ीम' आज ग़ज़ल तेरी सुनी है
उस्लूब-ए-बयाँ तेरा मुअस्सर तो नहीं था
ग़ज़ल
सहरा का कोई फूल मोअ'त्तर तो नहीं था
अज़ीम कुरेशी