सुरूर-ए-इश्क़ की मस्ती कहाँ है सब के लिए
वो मुझ में जज़्ब हुआ आ के एक शब के लिए
वो एक कर्ब-ए-हसीं जो मुझे हुआ है अता
न तेरे रुख़ के लिए है न तेरे लब के लिए
कभी तो उल्टे सर-ए-आम वो नक़ाब अपनी
तरस रहे हैं सभी बादा-ए-इनब के लिए
तिरे विसाल की कब आरज़ू रही दिल को
कि हम ने चाहा तुझे शौक़-ए-बे-सबब के लिए
दिल-ए-हज़ीं कि दो-आलम नहीं बहा जिस की
लुटाया मैं ने इसे तेरी एक छब के लिए
वही किरन जो सर-ए-चर्ख़ रह गई तन्हा
वो सोग बन गई तारों के हर तरब के लिए
'अज़ीम' इश्क़-ए-शह-ए-दो-सरा बसा दिल में
वही अजम के लिए है वही अरब के लिए
ग़ज़ल
सुरूर-ए-इश्क़ की मस्ती कहाँ है सब के लिए
अज़ीम कुरेशी