वो शोख़ दिल-ओ-जाँ की तमन्ना तो न निकला
शो'ला तो न निकला वो शरारा तो न निकला
महसूस किया दर्द के हर रूप में उस को
आवाज़ का अफ़्सूँ कभी झूटा तो न निकला
महरूमी-ए-जावेद ने दोनों ही को मारा
ये राज़-ए-मोहब्बत कोई गहरा तो न निकला
ये दिल का ख़राबा ही तिरी राहगुज़र थी
काबा तो न निकला वो कलीसा तो न निकला
वो मेरे मुक़द्दर की स्याही था सरापा
नूर-ए-शब-ए-महताब सुनहरा तो न निकला
हम भी किसी शीरीं के लिए ख़ाना-बदर थे
फ़रहाद रह-ए-इश्क़ में तन्हा तो न निकला
इस में तिरी ख़ल्वत का हर इक रंग है पाया
ये चाँद सर-ए-चर्ख़ अकेला तो न निकला
पहले से बढ़ी और ग़म-ए-इश्क़ की तल्ख़ी
तू भी मिरे दम-साज़ मसीहा तो न निकला
अंदाज़-ए-बयाँ तेरा 'अज़ीम' और ही कुछ है
देखे सभी फ़नकार प तुझ सा तो न निकला
ग़ज़ल
वो शोख़ दिल-ओ-जाँ की तमन्ना तो न निकला
अज़ीम कुरेशी