'अतीक़' बुझता भी कैसे चराग़-ए-दिल मेरा
लगी थी उस की हिफ़ाज़त में सारी रात हवा
अतीक़ इलाहाबादी
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देव परी के क़िस्से सुन कर
भूके बच्चे सो लेते हैं
अतीक़ इलाहाबादी
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घर हमारा फूँक कर कल इक पड़ोसी ऐ 'अतीक़'
दो घड़ी तो हँस लिया फिर बाद में रोया बहुत
अतीक़ इलाहाबादी
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होंटों पर इक बार सजा कर अपने होंट
उस के बाद न बातें करना सो जाना
अतीक़ इलाहाबादी
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मैं ने पूछा ये बता मुझ से बिछड़ने का तुझे
कुछ क़लक़ होता है क्या उस ने कहा थोड़ा बहुत
अतीक़ इलाहाबादी
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नवाज़ता था हमेशा वो ग़म की दौलत से
और इस ख़ज़ाने से मैं माला माल हो ही गया
अतीक़ इलाहाबादी
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