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ज़ब्त की हद से हो के गुज़रना सो जाना | शाही शायरी
zabt ki had se ho ke guzarna so jaana

ग़ज़ल

ज़ब्त की हद से हो के गुज़रना सो जाना

अतीक़ इलाहाबादी

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ज़ब्त की हद से हो के गुज़रना सो जाना
रात गए तक बातें करना सो जाना

रोज़ाना की दीवारों से टकरा कर
रेज़ा रेज़ा हो के बिखरना सो जाना

दिन भर हिज्र के ज़ख़्मों की मरहम-कारी
रात को तेरे वस्ल में मरना सो जाना

मुझ को ये आसूदा-मिज़ाजी तुम ने दी
साँसों की ख़ुशबू से सँवरना सो जाना

होंटों पर इक बार सजा कर अपने होंट
उस के बाद न बातें करना सो जाना

अपनी क़िस्मत में भी क्या लिक्खा है 'अतीक़'
बाँहों की वादी में उतरना सो जाना