ज़ब्त की हद से हो के गुज़रना सो जाना
रात गए तक बातें करना सो जाना
रोज़ाना की दीवारों से टकरा कर
रेज़ा रेज़ा हो के बिखरना सो जाना
दिन भर हिज्र के ज़ख़्मों की मरहम-कारी
रात को तेरे वस्ल में मरना सो जाना
मुझ को ये आसूदा-मिज़ाजी तुम ने दी
साँसों की ख़ुशबू से सँवरना सो जाना
होंटों पर इक बार सजा कर अपने होंट
उस के बाद न बातें करना सो जाना
अपनी क़िस्मत में भी क्या लिक्खा है 'अतीक़'
बाँहों की वादी में उतरना सो जाना
ग़ज़ल
ज़ब्त की हद से हो के गुज़रना सो जाना
अतीक़ इलाहाबादी