ज़िंदगी छीन ले बख़्शी हुई दौलत अपनी
तू ने ख़्वाबों के सिवा मुझ को दिया भी क्या है
अख़्तर सईद ख़ान
दिन रात मय-कदे में गुज़रती थी ज़िंदगी
'अख़्तर' वो बे-ख़ुदी के ज़माने किधर गए
अख़्तर शीरानी
ज़िंदगी कितनी मसर्रत से गुज़रती या रब
ऐश की तरह अगर ग़म भी गवारा होता
अख़्तर शीरानी
दर्द बढ़ कर दवा न हो जाए
ज़िंदगी बे-मज़ा न हो जाए
अलीम अख़्तर
लाई है किस मक़ाम पे ये ज़िंदगी मुझे
महसूस हो रही है ख़ुद अपनी कमी मुझे
अली अहमद जलीली
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ऐश ही ऐश है न सब ग़म है
ज़िंदगी इक हसीन संगम है
अली जव्वाद ज़ैदी
ज़ीस्त का ए'तिबार क्या है 'अमीर'
आदमी बुलबुला है पानी का
अमीर मीनाई
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