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लाई है किस मक़ाम पे ये ज़िंदगी मुझे | शाही शायरी
lai hai kis maqam pe ye zindagi mujhe

ग़ज़ल

लाई है किस मक़ाम पे ये ज़िंदगी मुझे

अली अहमद जलीली

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लाई है किस मक़ाम पे ये ज़िंदगी मुझे
महसूस हो रही है ख़ुद अपनी कमी मुझे

देखो तुम आज मुझ को बुझाते तो हो मगर
कल ढूँढती फिरेगी बहुत रौशनी मुझे

तय कर रहा हूँ मैं भी ये राहें सलीब की
आवाज़ ऐ हयात न देना अभी मुझे

सूखे शजर को फेंक दूँ कैसे निकाल कर
देता रहा है साया शजर जो कभी मुझे

क्यूँ कर रही है मुझ से सवालात ज़िंदगी
कह दो जवाब की नहीं फ़ुर्सत अभी मुझे

क्या चाहता था वक़्त पे लिखना न पूछिए
हुर्मत क़लम की अपनी बचानी पड़ी मुझे

दिल-दारियाँ भी रह गईं पर्दे में ऐ 'अली'
लहजा बदल बदल के सदा दी गई मुझे