ख़ामोश हो गईं जो उमंगें शबाब की
फिर जुरअत-ए-गुनाह न की हम भी चुप रहे
हफ़ीज़ जालंधरी
कहेगी हश्र के दिन उस की रहमत-ए-बे-हद
कि बे-गुनाह से अच्छा गुनाह-गार रहा
हिज्र नाज़िम अली ख़ान
अपने किसी अमल पे नदामत नहीं मुझे
था नेक-दिल बहुत जो गुनहगार मुझ में था
हिमायत अली शाएर
सुना है ख़्वाब मुकम्मल कभी नहीं होते
सुना है इश्क़ ख़ता है सो कर के देखते हैं
हुमैरा राहत
यूँ ज़िंदगी गुज़ार रहा हूँ तिरे बग़ैर
जैसे कोई गुनाह किए जा रहा हूँ मैं
जिगर मुरादाबादी
ये क्या कहूँ कि मुझ को कुछ गुनाह भी अज़ीज़ हैं
ये क्यूँ कहूँ कि ज़िंदगी सवाब के लिए नहीं
महबूब ख़िज़ां
देखा तो सब के सर पे गुनाहों का बोझ था
ख़ुश थे तमाम नेकियाँ दरिया में डाल कर
मोहम्मद अल्वी