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शब-ए-फ़िराक़ कुछ ऐसा ख़याल-ए-यार रहा | शाही शायरी
shab-e-firaq kuchh aisa KHayal-e-yar raha

ग़ज़ल

शब-ए-फ़िराक़ कुछ ऐसा ख़याल-ए-यार रहा

हिज्र नाज़िम अली ख़ान

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शब-ए-फ़िराक़ कुछ ऐसा ख़याल-ए-यार रहा
कि रात भर दिल-ए-ग़म-दीदा बे-क़रार रहा

कहेगी हश्र के दिन उस की रहमत-ए-बे-हद
कि बे-गुनाह से अच्छा गुनाह-गार रहा

तिरा ख़याल भी किस दर्जा शोख़ है ऐ शोख़
कि जितनी देर रहा दिल में बे-क़रार रहा

शराब-ए-इश्क़ फ़क़त इक ज़रा सी चक्खी थी
बड़ा सुरूर घुटा मुद्दतों ख़ुमार रहा

उन्हें ग़रज़ उन्हें मतलब वो हाल क्यूँ पूछें
बला से उन की अगर कोई बे-क़रार रहा

तुम्हें कभी न कभी मर के भी दिखा दूँगा
जो ज़िंदगी ने वफ़ा की जो बरक़रार रहा

अदाएँ देख चुके आईने में आप अपनी
बताइए तो सही दिल पर इख़्तियार रहा

शब-ए-विसाल बड़े लुत्फ़ से कटी ऐ 'हिज्र'
तमाम रात किसी के गले का हार रहा