इस तमाशे का सबब वर्ना कहाँ बाक़ी है
अब भी कुछ लोग हैं ज़िंदा कि जहाँ बाक़ी है
अहल-ए-सहरा भी बढ़े आते हैं शहरों की तरफ़
साँस लेने को जहाँ सिर्फ़ धुआँ बाक़ी है
ज़िंदगी उम्र के उस मोड़ पे पहुँची है जहाँ
सूद नापैद है एहसास-ए-ज़ियाँ बाक़ी है
ढूँढती रहती है हर लम्हा निगाह-ए-दहशत
और किस शहर-ए-मोहब्बत में अमाँ बाक़ी है
मैं कभी सूद का क़ाइल भी नहीं था लेकिन
ज़िंदगी और बता कितना ज़ियाँ बाक़ी है
मार कर भी मिरे क़ातिल को तसल्ली न हुई
मैं हुआ ख़त्म तो क्यूँ नाम-ओ-निशाँ बाक़ी है
ऐसी ख़ुशियाँ तो किताबों में मिलेंगी शायद
ख़त्म अब घर का तसव्वुर है मकाँ बाक़ी है
लाख 'आज़र' रहें तज्दीद-ए-ग़ज़ल से लिपटे
आज भी 'मीर' का अंदाज़-ए-बयाँ बाक़ी है
ग़ज़ल
इस तमाशे का सबब वर्ना कहाँ बाक़ी है
फ़रियाद आज़र