छुप गए वो साज़-ए-हस्ती छेड़ कर
अब तो बस आवाज़ ही आवाज़ है
असरार-उल-हक़ मजाज़
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मेरी ये आरज़ू है वक़्त-ए-मर्ग
उस की आवाज़ कान में आवे
ग़मगीन देहलवी
तिरी आवाज़ को इस शहर की लहरें तरसती हैं
ग़लत नंबर मिलाता हूँ तो पहरों बात होती है
ग़ुलाम मोहम्मद क़ासिर
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कोई आया तिरी झलक देखी
कोई बोला सुनी तिरी आवाज़
जोश मलीहाबादी
मैं उस को खो के भी उस को पुकारती ही रही
कि सारा रब्त तो आवाज़ के सफ़र का था
मंसूरा अहमद
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तफ़रीक़ हुस्न-ओ-इश्क़ के अंदाज़ में न हो
लफ़्ज़ों में फ़र्क़ हो मगर आवाज़ में न हो
मंज़र लखनवी
मैं जो बोला कहा कि ये आवाज़
उसी ख़ाना-ख़राब की सी है
मीर तक़ी मीर
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