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जो न वहम-ओ-गुमान में आवे | शाही शायरी
jo na wahm-o-guman mein aawe

ग़ज़ल

जो न वहम-ओ-गुमान में आवे

ग़मगीन देहलवी

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जो न वहम-ओ-गुमान में आवे
किस तरह तेरे ध्यान में आवे

तुझ से हमदम रखूँ न पोशीदा
हाल-ए-दिल गर बयान में आवे

मेरी ये आरज़ू है वक़्त-ए-मर्ग
उस की आवाज़ कान में आवे

मैं न दूँगा जवाब तू कह ले
जो कि तेरी ज़बान में आवे

ये शब-ए-वस्ल ख़ैर से गुज़रे
तो मिरी जान जान में आवे

हाए क्या हो अभी जो ऐ हमदम
वो सनम इस मकान में आवे

गर खुले चश्म-ए-दिल तो तुझ को नज़र
वो ही सारे जहान में आवे

उस की तारीफ़ क्या करूँ 'ग़मगीं'
हल-अता जिस की शान में आवे