सख़्त पिस्ताँ तिरे चुभे दिल में
अपने हाथों से मैं ख़राब हुआ
वली उज़लत
सिया है ज़ख़्म-ए-बुलबुल गुल ने ख़ार और बोईगुलशन से
सूई तागा हमारे चाक-ए-दिल का है कहाँ देखें
वली उज़लत
तल्ख़ लगता है उसे शहर की बस्ती का स्वाद
ज़ौक़ है जिस को बयाबाँ के निकल जाने का
वली उज़लत
तल्ख़ लगता है उसे शहर की बस्ती का स्वाद
ज़ौक़ है जिस को बयाबाँ के निकल जाने का
वली उज़लत
तिरी वहशत की सरसर से उड़ा जूँ पात आँधी का
मिरा दिल हाथ से खोया तो तेरे हाथ क्या आया
वली उज़लत
तिरी ज़ुल्फ़ की शब का बेदार मैं हूँ
तुझ आँखों के साग़र का मय-ख़्वार मैं हूँ
वली उज़लत
तिरी ज़ुल्फ़ की शब का बेदार मैं हूँ
तुझ आँखों के साग़र का मय-ख़्वार मैं हूँ
वली उज़लत