इक मौज-ए-फ़ना थी जो रोके न रुकी आख़िर
दीवार बहुत खींची दरबान बहुत रक्खा
सुहैल अहमद ज़ैदी
कभी तो लगता है गुमराह कर गई मुझ को
सुख़न-वरी कभी पैग़म्बरी सी लगती है
सुहैल अहमद ज़ैदी
पेड़ ऊँचा है मगर ज़ेर-ए-ज़मीं कितना है
लब पे है नाम-ए-ख़ुदा दिल में यक़ीं कितना है
सुहैल अहमद ज़ैदी
पेड़ ऊँचा है मगर ज़ेर-ए-ज़मीं कितना है
लब पे है नाम-ए-ख़ुदा दिल में यक़ीं कितना है
सुहैल अहमद ज़ैदी
पहाड़ जैसे दिनों को तो काट लूँ लेकिन
निकल न पाऊँ मैं इक रात की गिरानी से
सुहैल अख़्तर
ज़िंदगी जिस ने तल्ख़ की मेरी
वो मुझे ज़िंदगी से प्यारा है
सुहैल अख़्तर
'अरीब' देखो न इतराओ चंद शेरों पर
ग़ज़ल वो फ़न है कि 'ग़ालिब' को तुम सलाम करो
सुलैमान अरीब