कितनी फ़रियादें लबों पर रुक गईं
कितने अश्क आहों में ढल कर रह गए
सूफ़ी तबस्सुम
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मिलते गए हैं मोड़ नए हर मक़ाम पर
बढ़ती गई है दूरियाँ मंज़िल जगह जगह
सूफ़ी तबस्सुम
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मिलते गए हैं मोड़ नए हर मक़ाम पर
बढ़ती गई है दूरियाँ मंज़िल जगह जगह
सूफ़ी तबस्सुम
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रोज़ दोहराते थे अफ़्साना-ए-दिल
किस तरह भूल गया याद नहीं
सूफ़ी तबस्सुम
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होता है मिरे दिल में हसीनों का गुज़र भी
इक अंजुमन-ए-नाज़ है अल्लाह का घर भी
सुहा मुजद्ददी
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होता है मिरे दिल में हसीनों का गुज़र भी
इक अंजुमन-ए-नाज़ है अल्लाह का घर भी
सुहा मुजद्ददी
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देखो तो हर इक शख़्स के हाथों में हैं पत्थर
पूछो तो कहीं शहर बनाने के लिए है
सुहैल अहमद ज़ैदी
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