हिसाब-ए-उम्र करो या हिसाब-ए-जाम करो
ब-क़द्र-ए-ज़र्फ़ शब-ए-ग़म का एहतिमाम करो
अगर ज़रा भी रिवायत की पासदारी है
ख़िरद के दौर में रस्म-ए-जुनूँ को आम करो
ख़ुदा गवाह फ़क़ीरों का तजरबा ये है
जहाँ हो सुब्ह तुम्हारी वहाँ न शाम करो
न रिंद ओ शैख़ न मुल्ला न मोहतसिब न फ़क़ीह
ये मय-कदा है यहाँ सब को शाद-काम करो
वही है तेशा बयाबाँ वही है दार वही
जो हो सके तो ज़माने में तुम भी नाम करो
ख़िराम-ए-यार की आहट सी दिल से आती है
सरिश्क-ए-ख़ूँ से चराग़ाँ का एहतिमाम करो
असीर-ए-ज़ुल्फ़ हमीं इक नहीं हैं 'मीर' भी थे
मगर अब उठ के दो-आलम को ज़ेर-ए-दाम करो
'अरीब' देखो न इतराओ चंद शेरों पर
ग़ज़ल वो फ़न है कि 'ग़ालिब' को तुम सलाम करो
ग़ज़ल
हिसाब-ए-उम्र करो या हिसाब-ए-जाम करो
सुलैमान अरीब