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शब ओ रोज़ जैसे ठहर गए कोई नाज़ है न नियाज़ है | शाही शायरी
shab o roz jaise Thahar gae koi naz hai na niyaz hai

ग़ज़ल

शब ओ रोज़ जैसे ठहर गए कोई नाज़ है न नियाज़ है

शाज़ तमकनत

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शब ओ रोज़ जैसे ठहर गए कोई नाज़ है न नियाज़ है
तिरे हिज्र में ये पता चला मिरी उम्र कितनी दराज़ है

ये जहाँ है महबस-ए-बे-अमाँ कोई साँस ले तो भला कहाँ
तिरा हुस्न आ गया दरमियाँ यही ज़िंदगी का जवाज़ है

हो बदन के लोच का क्या बयाँ किसी नय की मौज है पर-फ़िशाँ
कोई लय है ज़ेर-ए-क़बा निहाँ कोई शय ब-सूरत-ए-राज़ है

तिरे ग़म से दिल फिर अमीर हो कोई चाँद निकले सफ़ीर हो
शब-ए-दश्त-ए-हू है ये ज़िंदगी न नशेब है न फ़राज़ है

चले ताइर उड़ के पस-ए-शफ़क़ है उदास उदास रुख़-ए-उफ़ुक़
कि बयाज़-ए-शाम का हर वरक़ तिरी दास्तान-ए-दराज़ है

अगर एहतियात-ए-ख़िताब हो लब-ए-संग खिल के गुलाब हो
तू किसी सनम को सदा तो दे दर-ए-बुत-कदा अभी बाज़ है

वही रूप साग़र-ए-जम में भी वही अक्स दीदा-ए-नम में भी
मिरे वास्ते तो हरम में भी वही 'शाज़' रू-ए-मजाज़ है