दश्त ओ सहरा अगर बसाए हैं
हम गुलिस्ताँ में कब समाए हैं
आप नग़्मों के मुंतज़िर होंगे
हम तो फ़रियाद ले के आए हैं
एक अपना दिया जलाने को
तुम ने लाखों दिए बुझाए हैं
क्या नज़र आएगा अभी हम को
यक-ब-यक रौशनी में आए हैं
यूँ तो सारा चमन हमारा है
फूल जितने भी हैं पराए हैं
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ग़ज़ल
दश्त ओ सहरा अगर बसाए हैं
शकेब जलाली