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कनार-ए-आब खड़ा ख़ुद से कह रहा है कोई | शाही शायरी
kanar-e-ab khaDa KHud se kah raha hai koi

ग़ज़ल

कनार-ए-आब खड़ा ख़ुद से कह रहा है कोई

शकेब जलाली

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कनार-ए-आब खड़ा ख़ुद से कह रहा है कोई
गुमाँ गुज़रता है ये शख़्स दूसरा है कोई

हवा ने तोड़ के पत्ता ज़मीं पे फेंका है
कि शब की झील में पत्थर गिरा दिया है कोई

बटा सके हैं पड़ोसी किसी का दर्द कभी
यही बहुत है कि चेहरे से आश्ना है कोई

दरख़्त-ए-राह बताएँ हिला हिला कर हाथ
कि क़ाफ़िले से मुसाफ़िर बिछड़ गया है कोई

छुड़ा के हाथ बहुत दूर बह गया है चाँद
किसी के साथ समुंदर में डूबता है कोई

ये आसमान से टूटा हुआ सितारा है
कि दश्त-ए-शब में भटकती हुई सदा है कोई

मकान और नहीं है बदल गया है मकीं
उफ़ुक़ वही है मगर चाँद दूसरा है कोई

फ़सील-ए-जिस्म पे ताज़ा लहू के छींटे हैं
हुदूद-ए-वक़्त से आगे निकल गया है कोई

'शकेब' दीप से लहरा रहे हैं पलकों पर
दयार-ए-चश्म में क्या आज रत-जगा है कोई