कोई हैरत है न इस बात का रोना है हमें 
ख़ाक से उट्ठे हैं सो ख़ाक ही होना है हमें 
फिर तअल्लुक़ के बिखरने की शिकायत कैसी 
जब उसे काँच के धागों में पिरोना है हमें 
उँगलियों की सभी पोरों से लहू रिसता है 
अपने दामन के ये किस दाग़ को धोना है हमें 
फिर उतर आए हैं पलकों पे सिसकते आँसू 
फिर किसी शाम के आँचल को भिगोना है हमें 
ये जो अफ़्लाक की वुसअत में लिए फिरती है 
इस अना ने ही किसी रोज़ डुबोना है हमें
        ग़ज़ल
कोई हैरत है न इस बात का रोना है हमें
अहमद ख़याल

