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ज़िंदगी ख़ौफ़ से तश्कील नहीं करनी मुझे | शाही शायरी
zindagi KHauf se tashkil nahin karni mujhe

ग़ज़ल

ज़िंदगी ख़ौफ़ से तश्कील नहीं करनी मुझे

अहमद ख़याल

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ज़िंदगी ख़ौफ़ से तश्कील नहीं करनी मुझे
रात से ज़ात की तकमील नहीं करनी मुझे

किसी दरवेश के हुजरे से अभी आया हूँ
सो तिरे हुक्म की तामील नहीं करनी मुझे

छोड़ दी दश्त-नवर्दी भी ज़ियाँ-कारी भी
ज़िंदगी अब तिरी तज़लील नहीं करनी मुझे

दिल के बाज़ार में ज़ंजीर-ज़नी होनी नहीं
आँख भी आँख रहे झील नहीं करनी मुझे

मैं कि इल्हाद के गिर्दाब में आया हुआ हूँ
अब किसी इल्म की तहसील नहीं करनी मुझे

लड़ते रहना है तसलसुल से मुझे सुब्ह तलक
और तलवार भी तब्दील नहीं करनी मुझे