फ़ना के दश्त में कब का उतर गया था मैं 
तुम्हारा साथ न होता तो मर गया था मैं 
किसी के दस्त-ए-हुनर ने मुझे समेट लिया 
वगरना पात की सूरत बिखर गया था मैं 
वो ख़ुश-जमाल चमन से गुज़र के आया तो 
महक उठे थे गुलाब और निखर गया था मैं 
कोई तो दश्त समुंदर में ढल गया आख़िर 
किसी के हिज्र में रो रो के भर गया था मैं
        ग़ज़ल
फ़ना के दश्त में कब का उतर गया था मैं
अहमद ख़याल

